शेरे आंध्र थे टी. प्रकाशम

के. विक्रम राव

भारत के प्रथम भाषावार प्रदेश आंध्र के पहले मुख्य मंत्री आंध्र केसरी बैरिस्टर टंगटूरि प्रकाशम रहे थे। आज (20 मई 2022) उनकी 65वीं जयंती हैं। जब हैदराबाद अस्पताल में उनका देहांत हुआ था, तो मृत्यु का कारण पता चला था कि वे कई दिनों से निराहार थे। फिर हैदरगुडा के उनके पड़ोसियों ने पाया कि उनकी रसोई में न ईधन था, न अन्न। उनका पोता हैदराबाद में बाबू की नौकरी करता रहा।
इस गांधीवादी स्वाधीनता सेनानी प्रकाशम के राजनीतिक प्रशिक्षुओं में रहे नीलम संजीव रेड्डि, छठे राष्ट्रपति, तथा बी.गोपाल रेड्डि, यूपी के सांतवें राज्यपाल। गुलाम भारत में प्रकाशम संपादक प्रकाशक थे पत्रिका ’स्वराज्य’ (अंग्रेजी, तेलुगु तथा तमिल) के। इस आजादी की आवाज को विदेशी साम्राज्यवादियों ने जुर्माना थोप कर बंद ही करा दिया था। प्रकाशम ने पांच वर्षों से अधिक वक्त ब्रिटिश जेल में गुजारा, 1942 ’भारत छोड़ो’ सत्याग्रह मिलाकर। उन्हें ’आंध्र केसरी’ की उपाधि मिलने से जुड़ा दिलचस्प वाकया है। साइमन आयोग के बहिष्कार में (3 फरवरी 1928) महात्मा गांधी की अपील पर देशभर में विरोध जुलूस निकले। मद्रास (अब चेन्नई) में भी विशाल जुलूस निकाला गया। ब्रिटिश पुलिस की गोली से एक युवक पार्थसारथी मारा गया। उसके शव को उठाने कुछ लोग आगे बढ़े लेकिन गोरे पुलिस अफसर ने चेतावनी दी कि जो भी शव के निकट आयेगा गोली से भून दिया जायेगा। सहमी भीड़ में 56कृवर्षीय प्रकाशम थे। वे आगे बढ़े, कुर्ते के बटन खोलकर नंगा सीना तानकर बोले : ’चलाओ गोली’। सिपाही सहम गये। शव दे दिया। तभी से प्रकाशम को ’केसरी’ (शेर) का खिताब मिला। जैसे जलियांवाला बाग के बाद लाला लाजपत राय को पंजाब केसरी और श्रीकृष्ण सिन्हा को बिहार केसरी। स्वाधीनता की बेला पर अविभाजित मद्रास राज्य (केरल, कर्नाटक, आंध्र, तमिलनाडु मिलाकर) के वे प्रधानमंत्री (तब चीफ मिनिस्टर को यही कहते थे) चुने गये, (30 अप्रैल 1946 से 22 मार्च 1947)। तब वहां के गवर्नर थे जनरल आर्चिबाल्ड नेयी, उपसेनापति तथा विंस्टन चर्चिल के चहेते। कामराज नादार प्रकाशम के कनिष्ठ साथी रहे। बाद में कांग्रेस अध्यक्ष चयनित हो कर इन्हीं कामराज नादार ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाया था। उस वक्त स्वतंत्रता के ठीक पूर्व मद्रास राज के मुख्यमंत्री के लिये प्रकाशम मजबूत दावेदार थे। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी लार्ड माउंटबेटन के बाद प्रथम गवर्नर जनरल बने। सर्वप्रथम महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरु राजगोपालाचारी को ही मुख्यमंत्री हेतु पंसद करते थे। पर प्रदेश कांग्रेस में बगावत की स्थिति पैदा हो गयी थी। कारण था कि राजगोपालाचारी ने 1942 के ’’भारत छोड़ो’’ आंदोलन का विरोध किया था। जेल नहीं गये थे। उन्होंने पाकिस्तान की मांग पर मोहम्मद अली जिन्ना का समर्थन किया था। प्रकाशम तभी जेल से छूटे थे।
उनकी एक घटना बड़ी यादगार है। मद्रास विश्वविद्यालय से लॉ डिग्री लेकर वे बैरिस्टरी पढ़ने वे लंदन जा रहे थे। विधवा मां सहमत नहीं थी। पर प्रकाशम ने मां को वचन दिया। ठीक जैसे गांधीजी ने अपनी मां को दिया था। लंदन में मांस, मदिरा, धूम्रपान का परेज करेंगे। शाकाहारी ही रहेंगे। यूं भी प्रकाशम उच्च कोटि के तेलुगु नियोगी ब्राह्मण थे। उनके पिता की अल्पायु में मृत्यु के कारण उनकी विधवा मां छात्रों के लिये भोजनालय चलाकर घर चलाती थी। ओंगोल से पचास किलोमीटर दूर मेरा पुश्तैनी गांव (अब शहर) सागरतटीय चीराला है। मेरे पिता स्वाधीनता सेनानीकृसंपादक स्व. श्री के.रामा राव के प्रकाशम रिश्ते में मामा लगते थे। अधुना ओंगोल जनपद उन्हीं के नाम प्रकाशम जिला रखा गया है। प्रकाशम ने कानून पर विशेष पत्रिका ’’लॉ टाइम्स’’ का संपादन किया। वे 1921 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अहमदाबाद सम्मेलन में राष्ट्रीय महासचिव निर्वाचित हुये थे। उनकी वकालत का पहला मुकदमा था जब तिरुनलवेली (तमिलनाडु) के अंग्रेज अफसर मिस्टर एश की हत्या (1907) के आरोपी के बचाव के लिये वकील बनकर प्रकाशम ने उसे रिहा करवा लिया। प्रकाशम अकाली सत्याग्रह में भाग लेने लाहौर गये। हिंसक मोपला मुसलमानों से हिन्दुओं की रक्षार्थ केरल गये थे। वे हिन्दुकृमुसलमान दंगे को शांत कराने मुलतान (अब पाकिस्तान) भी गये थे। हैदराबाद में रजाकर नेता और असदुद्दीन ओवैसी के पूर्वज कासिम रिजवी को समझाने हैदराबाद गये थे। पर निजाम के मंत्री रिजवी हठी रहें, पाकिस्तान के समर्थक थे। प्रकाशम को जीवन में एक ही मलाल रहा कि जो भारतीय जंगे आजादी के दौरान में अंग्रेजी साम्राज्य के लाभार्थी तथा झण्डाबरदार थे, आजादी के बाद नेहरुकृयुग में भी वे सभी स्वाधीन भारत में भी नफाखोर बने रहे। एक बार की घटना है। बात 1956 के ग्रीष्मावकाश की है। मेरे पिता स्व. श्री के. रामा राव नेहरु सरकार के पंचवर्षीय योजना के वरिष्ठ परामर्शदाता थे। मैं दिल्ली गया था, तभी प्रकाशम जी किसी कारणवश दिल्ली आये। उस गरम दोपहर को वे अपने साथ मुझे ले गये। डा. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन से भेंट के लिये। वापसी पर उपराष्ट्रपति के भव्य बंगले के फाटक पर प्रकाशमजी की टिप्पणी अत्यधिक मार्मिक थी। वे बोले : ’यह है सर एस. राधाकृष्णन, ब्रिटिश राज ने इन्हें उपकार हेतु सर (नाइट) की उपाधि से नवाजा था। वे कभी भी शामिल नहीं रहे स्वाधीनता आंदोलन में। मुझे देखो। कितनी बार जेल भुगता। आंध्र के सभी लोग जानते है। मगर कहीं भी रहने का मेरा ठिकाना नहीं है।’ फिर रुके, व्यथा से मुझसे कहा : ‘बुलाओ टैक्सी। साउथ एवेन्यु चलना है।’ तब मेरे पिताश्री का वही सरकार आवास था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं आइएफडब्लूजे के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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