पुराणों के अनुसार श्राद्ध का महत्व
गौरव कृष्ण शास्त्री
कूर्मपुराण में कहा गया है कि जो प्राणी जिस किसी भी विधि से एकाग्रचित होकर श्राद्ध करता है, वह समस्त पापों से रहित होकर मुक्त हो जाता है और पुनः संसार चक्र में नहीं आता। गरुड़ पुराण के अनुसार ’पितृ पूजन (श्राद्ध कर्म) से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशु, सुख, धन और धान्य देते हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार ’श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, सन्तति, धन, विद्या सुख, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं।’ ब्रह्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति से श्राद्ध करता है, उसके कुल में कोई भी दुःखी नहीं होता। साथ ही ब्रह्म पुराण में यह भी वर्णन है कि श्रद्धा एवं विश्वास पूर्वक किए हुए श्राद्ध में पिण्डों पर गिरी हुई पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदों से पशु-पक्षियों की योनि में पड़े हुए पितरों का पोषण होता है। जिस कुल में जो बाल्यावस्था में ही मर गए हों, वे सम्मार्जन के जल से तृप्त हो जाते हैं।
श्राद्ध में क्या करें, क्या न करें
श्राद्ध एकान्त में, गुप्तरुप से करना चाहिये। पिण्डदान पर दुष्ट मनुष्यों की दृष्टि पडने पर वह पितरों को नहीं पहुचँता। दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिये। जंगल, पर्वत, पुण्यतीर्थ और देवमंदिर दूसरे की भूमि में नही आते। इन पर किसी का स्वामित्व नहीं होता। इसलिए यहां किया जा सकता है। श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों के द्वारा ही होती है, श्राद्ध के अवसर पर ब्राह्मण को निमंत्रित करना आवश्यक है, जो बिना ब्राह्मण के श्राद्ध करता है, उसके घर पितर भोजन नहीं करते तथा श्राप देकर लौट जाते हैं, ब्राह्मणहीन श्राद्ध करने से मनुष्य महापापी होता है। (पद्मपुराण, कूर्मपुराण, स्कन्दपुराण )’
श्राद्ध के द्वारा प्रसन्न हुये पितृ गण मनुष्यों को पुत्र, धन, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष आदि प्रदान करते हैं। श्राद्ध के योग्य समय हो या न हो, तीर्थ में पहुचते ही मनुष्य को सर्वदा स्नान, तर्पण और श्राद्ध करना चाहिये। शुक्ल पक्ष की अपेक्षा कृष्ण पक्ष और पूर्वाह्न की अपेक्षा अपराह्न श्राद्ध के लिये श्रेष्ठ माना जाता है। (पद्मपुराण, मनुस्मृति)’
सायंकाल में श्राद्ध नहीं करना चाहिये। सायंकाल का समय राक्षसी बेला नाम से प्रसिद्ध है। चतुर्दशी को श्राद्ध करने से कुप्रजा (निन्दित सन्तान) पैदा होती है, परन्तु जिसके पितर युद्ध में शस्त्र से मारे गये हो, वे चतुर्दशी को श्राद्ध करने से प्रसन्न होते हैं, जो चतुर्दशी को श्राद्ध करने वाला स्वयं भी युद्ध का भागी होता है। (स्कन्दपुराण, कूर्मपुराण, महाभारत)
रात्रि में श्राद्ध नहीं करना चाहिये। उसे राक्षसी कहा गया है। दोनो संध्याओं में भी श्राद्ध नहीं करना चाहिये। दिन के आठवें भाग (मुहूर्त) में जब सूर्य का ताप घटने लगता है, उस समय का नाम ’कुतप’ है। उसमें पितरों के लिये दिया हुआ दान अक्षय होता है। कुतप, खड्ग पात्र, कम्बल, चाँदी, कुश, तिल, गौ और दौहित्र ये आठो कुतप नाम से प्रसिद्ध हैं। श्राद्ध में तीन वस्तुएँ अत्यन्त पवित्र हैं, दौहित्र, कुतपकाल तथा तिल। श्राद्ध में तीन वस्तुएँ अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, बाहर और भीतर की शुद्धि, क्रोध न करना तथा जल्दबाजी न करना (मनुस्मृति, मत्स्यपुराण, पद्मपुराण)।
श्राद्ध क्यो करना चाहिए
भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है कि जीते-जी तो विभिन्न संस्कारों के द्वारा, धर्मपालन के द्वारा मानव को समुन्नत करने के उपाय बताती ही है, लेकिन मरने के बाद भी अंत्येष्टि संस्कार के बाद भी जीव की सदगति के लिए किए जाने योग्य संस्कारों का वर्णन करती है।
मरणोत्तर : संस्कारों का वर्णन हमारे शास्त्र-पुराणों में आता है। श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में यथास्थान किया गया है। सनातन हिन्दू धर्म में एक भावना है। कृतज्ञता की भावना जो कि बालक में अपने माता-पिता के प्रति स्पष्ट परिलक्षित होती है। हिन्दू धर्म का व्यक्ति अपने जीवित माता-पिता की सेवा तो करता ही है। उनके देहावसान के बाद भी उनके कल्याण की भावना करता है एवं उनके अधूरे शुभ कार्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है। श्राद्ध-विधि इसी भावना पर आधारित है। उन पूर्वजों की प्रसन्नता, ईश्वर की प्रसन्नता अथवा अपने हृदय की शुद्धि के लिए सकाम व निष्काम भाव से स्मरण किया जाता है। मंत्रों व पूजा का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है। भगवान श्रीरामचन्द्र जी भी श्राद्ध करते थे। रामायण, महाभारत आदि ग्रंथां में भी श्राद्ध का वर्णन है। जिन्होंने हमें पाला-पोसा, बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, हम में भक्ति, ज्ञान एवं धर्म के संस्कारों का सिंचन किया, उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण करके उन्हें तर्पण-श्राद्ध से प्रसन्न करने के दिन ही हैं श्राद्धपक्ष। श्राद्ध पक्ष आश्विन के (गुजरात-महाराष्ट्र में भाद्रपद के) कृष्ण पक्ष में होते हैं। मृतात्मा की पूजा एवं उनकी इच्छा-तृप्ति का सिद्धान्त श्राद्ध मे समाहित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर देवऋण, पितृऋण एवं ऋषि ऋण रहता है। श्राद्ध क्रिया द्वारा पितृ ऋण से मुक्त हुआ जाता है। देवताओं को यज्ञ-भाग देने पर देवऋण से मुक्त हुआ जाता है। ऋषि-मुनि-संतों के विचारों को, आदर्शों को, ज्ञान को अपने जीवन में उतारने से, आदरसहित आचरण करने से ऋषिऋण से मुक्त हुआ जाता है। गरुड़ पुराण (10.57-59) में आता है कि ‘समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुःखी नहीं रहता। पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, आरोग्य,पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशुधन, सुख, धन और धान्य प्राप्त करता है। अगर आपके पास पैसे की व्यवस्था नहीं है और पंडित से श्राद्ध नहीं करा पाते तो सूर्य नारायण के आगे (दोनों हाथ ऊपर करके) बोलें, “हे सूर्य नारायण! मेरे पिता (नाम), अमुक (नाम) का बेटा, अमुक जाति (नाम), (अगर जाति, कुल, गोत्र नहीं याद तो ब्रह्म गोत्र बोल दें) को आप संतुष्ट/सुखी रखें। इस निमित मैं आपको अर्घ्य व भोजन कराता हूँ।” ऐसा करके आप सूर्य भगवान को अर्घ्य दें और भोग लगाएं और गाय माता को चारा खिलाये तो भी पितर तृप्त होते हैं। श्राद्ध पक्ष में रोज भगवद गीता के सातवें अध्याय का पाठ और एक माला द्वादश मंत्र ‘ऊं नमो भगवते वासुदेवाय’ का जाप करना चाहिये।
श्री राम जय राम जय जय राम। जय जय विघ्नहरण हनुमान।।
पितृ-श्राद्ध-आरम्भ
1 प्रतिपदा श्राद्ध – 3/9/20 गुरुवार
2 द्वितीया श्राद्ध – 4/9/20 शुक्रवार
3 तृतीया श्राद्ध- 5/9/20 शनिवार
4 चतुर्थी श्राद्ध-6/9/20 रविवार
5 पंचमी श्राद्ध- 7/9/20 सोमवार
6 षष्ठी श्राद्ध-8/9/20 मंगलवार
7 सप्तमी श्राद्ध- 9/9/20 बुधवार
8 अष्टमी श्राद्ध- 10/9/20 गुरुवार
9 नवमी श्राद्ध- 11/9/20 शुक्रवार
10 दशमी श्राद्ध- 12/9/20 शनिवार
11 एकादशी श्राद्ध- 13/9/20 रविवार
12 द्वादशी श्राद्ध- 14/9/20 सोमवार
13 त्रयोदशी श्राद्ध- 15/9/20 मंगलवार
14 चतुर्दशी श्राद्ध- 16/9/20 बुधवार
15 सर्वपितृ अमावस श्राद्ध 17/9/20 गुरुवार