नेहरु ने कहा, टण्डन जीते तो इस्तीफा दे दूंगा!

राज खन्ना

कांग्रेस पार्टी के लम्बे इतिहास में अध्यक्ष पद के दो यादगार चुनाव हुए। एक 1939 में, जब गांधी जी के न चाहने के बाद भी सुभाष चन्द्र बोस अध्यक्ष चुन लिए गये। दूसरी बार 1950 में जब पण्डित नेहरु के खुले विरोध के बाद भी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जीत गये। दोनो चुनावों में एक दिलचस्प समानता और रही। सुभाष बाबू को जीतकर भी इस्तीफा देना पड़ा। टण्डन जी के साथ भी यही हुआ।
पण्डित नेहरु और सरदार पटेल इस चुनाव के पूर्व किसी एक नाम पर सहमति बनाने के लिए साथ बैठे थे। टण्डन जी उस समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का इससे पहले 1948 का चुनाव वह हारे थे। समर्थक उन पर फिर से चुनाव लड़ने के लिए दबाव बनाये हुए थे। निजी तौर पर उनके प्रति आदर-लगाव रखने के बाद भी पण्डित नेहरु उनकी उम्मीदवारी के पक्ष में नही थे। टण्डन जी की दाढ़ी, विभाजन का प्रबल विरोध और हिन्दी के प्रति उत्कट प्रेम के चलते नेहरु की नजर में उनकी छवि ’एक पुरातनपंथी और साम्प्रदायिक’ नेता की थी। टण्डन जी के स्वतंत्र व्यक्तित्व और शरणार्थियों के एक सम्मेलन की अध्यक्षता ने भी पण्डित नेहरू को उनसे दूर किया था। एक दूसरा नाम शंकर राव देव का था। देव भाषायी आधार पर बृहत्तर महाराष्ट्र के तगड़े पैरोकार थे। इसमें वे सेण्ट्रल प्रॉविन्स और हैदराबाद के कई जिले शामिल कराना चाहते थे। इसके चलते सरदार पटेल से उनकी दूरियाँ बढ़ी हुई थीं। एच. सी. मुखर्जी और एस. के.पाटिल का भी नाम चला। पर बात नही बनी। पण्डित नेहरु और सरदार पटेल दोनो ही शुरुआती दौर में एक राय के थे कि जे.बी. कृपलानी को उम्मीदवार नही बनाना है। कृपलानी 1946-47 में अध्यक्ष रहे थे। नेहरु-पटेल का उनसे तालमेल नही बन सका था। अध्यक्ष के तौर पर अपनी उपेक्षा की कृपलानी की भी शिकायतें थीं। इस बीच सी.आर. राजगोपालाचारी ने अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल का नाम सुझाया। नेहरु खामोश रहे। लगा कि शायद नेहरु प्रधानमन्त्री के साथ अध्यक्ष पद की भी जिम्मेदारी संभालना चाहेंगे। सरदार पटेल सहमत थे। नेहरू दो अगस्त को पटेल के घर पहुँचे और सीआर राजगोपालाचारी को अध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया। सरदार पटेल इस प्रस्ताव पर भी राजी थे, लेकिन सी.आर.ने इनकार कर दिया। ये भी साफ हुआ कि पण्डित नेहरु दोहरी जिम्मेदारी नही चाहते। पर टण्डन जी को हराना उनकी प्राथमिकता है। नेहरु ने पटेल के रोकने के बाद भी मौलाना आजाद के घर वर्किंग कमेटी के दिल्ली में मौजूद सदस्यों की बैठक बुलाई। दो टूक कहा कि अध्यक्ष के पद पर टण्डन उन्हें स्वीकार्य नही हैं। 8 अगस्त 1950 को पण्डित नेहरु ने टण्डन जी को सीधे पत्र लिखकर उनका विरोध किया, “आपके चुने जाने से उन ताकतों को जबरदस्त बढ़ावा मिलेगा, जिन्हें मैं देश के लिए नुकसानदेह मानता हूँ। टण्डन जी ने 12 अगस्त को पण्डित नेहरु को उत्तर दिया, “हम बहुत से सवालों पर एकमत रहे हैं। अनेक बड़ी समस्याओं पर साथ काम किया है। पर कुछ ऐसे विषय हैं, जिस पर हमारा दृष्टिकोण एक नही है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाया जाना और देश का विभाजन इसमें सबसे प्रमुख है। मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि मेरे प्रति आपकी कटुतम अभिव्यक्ति भी मुझे कटु नही बना पाएगी और न ही आपके प्रति मेरे प्रेम में अवरोध कर सकेगी। मैंने वर्षों से अपने छोटे भाई की तरह विनम्रता के साथ आपसे प्रेम किया है।“
पर पण्डित नेहरु मन बना चुके थे। टण्डन जी के पत्र के एक दिन पहले ही 11 अगस्त को उनका नाम लिए बिना नेहरु ने एक बयान जारी किया, “जब तक वह प्रधानमंत्री हैं, उन्हें (टण्डन) अध्यक्ष स्वीकार करना उचित नही होगा। उम्मीद जतायी कि राजनीतिक, साम्प्रादायिक और अन्य समस्याओं के बारे में फैसले कांग्रेस की पुरानी सोच के मुताबिक ही लिये जाएंगे।“ इस बयान के जरिये नेहरु ने टण्डन को लेकर अपना रुख सार्वजनिक कर दिया। रफ़ी अहमद किदवई इस चुनाव में पण्डित नेहरु के मुख्य सलाहकार थे। किदवई को अहसास था कि टण्डन जी के सभी विचारों से सहमत न होने के बाद भी निष्ठा और ईमानदार छवि के कारण खासतौर पर हिन्दी पट्टी के राज्यों में कांग्रेसजन के बहुमत का उन्हें समर्थन प्राप्त है। शंकर राव देव के उनके मुकाबले टिकने की उम्मीद नही थी। किदवई ने नेहरु का मन बदलने की कोशिशें शुरु कीं। वह उन्हें समझाने में सफल रहे कि गुजरात, बिहार और उत्तर प्रदेश में अर्से से सक्रिय रहे कृपलानी ही टण्डन का मुकाबला कर सकते हैं। सरदार पटेल के लिए ये खबर चौंकाने वाली थी। किसी भी दशा में कृपलानी को स्वीकार न करने की नेहरु के साथ देहरादून में पांच जुलाई को हुई बात-चीत उन्होंने याद की। सी.आर. से कहा, “मैं भीतर तक हिल गया हूँ। मुझे आश्रम चले जाना चाहिए।“ सी.आर.को भी कृपलानी को उम्मीदवार बनाये जाने पर नेहरु से शिकायत थी। दोनो ने नेहरु को समझाने की कोशिश की, कि हिन्दू-मुस्लिम और शरणार्थियों के सवाल पर कृपलानी ने नेहरु की टण्डन के मुकाबले अधिक कड़ी आलोचना की हैं। पर नेहरु फैसला बदलने को तैयार नही थे।
सरदार पटेल का टण्डन जी के पक्ष में झुकाव शुरु हुआ। सरकार के भीतर भी खींचतान थी। सरदार को लग रहा था कि उन्हें किनारे किया जा रहा। कैबिनेट की वैदेशिक मामलों की कमेटी का सदस्य होने के बाद भी विदेशी मामलों में उनसे सलाह-मशविरा नही किया जा रहा था। खुद उनके गृह और राज्य मन्त्रालय मामलों में नेहरु की आलोचनात्मक दखल बढ़ रही थी। कांग्रेसियों के बीच टण्डन जी की लोकप्रियता सरदार को लुभा रही थी। 25 अगस्त को किदवई की पहल पर नेहरु-कृपलानी की बैठक हुई। बैठक के बाद कृपलानी ने पत्रकारों से नेहरू के रुख पर अपना आभार व्यक्त किया। कांग्रेस के वोटरों के बीच साफ संदेश पहुँच चुका था कि यह कृपलानी-टण्डन नही नेहरु-पटेल के बीच का भी मुकाबला है। 25 अगस्त को ही नेहरु ने पटेल को लिखा,“ टण्डन का चुना जाना वह अपने लिए पार्टी का अविश्वास मानेंगे। अगर टण्डन जीतते हैं तो वह न तो वर्किंग कमेटी में रहेंगे और न ही प्रधानमंत्री रहेंगे।“ पटेल ने सी.आर. से कहा कि वह जानते हैं कि नेहरु ऐसा कुछ नही करेंगे। 27 अगस्त को पटेल ने नेहरु से कहा, “आपको 30 वर्षों से जानता हूँ। पर आज तक नही जान पाया कि आपके दिल में क्या है?“ पटेल ने एक सयुंक्त बयान का प्रस्ताव किया कि उम्मीदवारों को लेकर असहमति के बाद भी बुनियादी सवालों पर हम एक हैं। अध्यक्ष जो भी चुना जाये, उसे कांग्रेस की नीतियों पर चलना होगा। नेहरु का जबाब था, “बयान का समय बीत चुका है।“ 29 अगस्त को 24 स्थानों पर मतदान हुआ। 1 सितम्बर को गिनती हुई। टण्डन 1306 वोट पाकर जीत गए। कृपलानी को 1092 और देव को 202 वोट मिले। उत्तर प्रदेश जो नेहरु और टण्डन दोनो का गृह प्रदेश था, वहाँ टण्डन को अच्छी बढ़त मिली। सरदार पटेल के गृह राज्य गुजरात के सभी वोट टण्डन को मिले। नतीजों के बाद पटेल ने सी.आर. से पूछा, “क्या नेहरु का इस्तीफ़ा लाये हैं?“ पटेल की उम्मीद के मुताबिक नेहरु इरादा बदल चुके थे। 13 सितम्बर 1950 को नेहरू ने एक बयान में कहा, “टण्डन की जीत पर साम्प्रदायिक और प्रतिक्रियावादी तत्वों ने खुलकर खुशी का इजहार किया है।“
सितम्बर के तीसरे हफ़्ते में कांग्रेस के नासिक सम्मेलन में टण्डन जी ने अध्यक्षीय भाषण में हिन्दू सरकार की अवधारणा को खारिज किया। सम्मेलन ने नेहरु-लियाकत समझौते, साम्प्रदायिकता और वैदेशिक मामलों में भी सरकार के स्टैण्ड का समर्थन किया। टण्डन वर्किंग कमेटी के चयन में पण्डित नेहरु की इच्छाओं को सम्मान करने को तैयार थे,सिवाय रफ़ी अहमद किदवई के नाम को लेकर। नेहरु ने शर्त लगा दी कि वह बिना किदवई के कमेटी में शामिल नही होंगे। टण्डन को समझाने की कोशिशें शुरु हुईं। मौलाना आजाद आगे आये। इनकार में टण्डन ने कहा कि वे उनकी तुलना में किदवई को कहीं ज्यादा जानते हैं। किदवई ने कहा था कि टण्डन के जीतने पर अगर नेहरु इस्तीफा नही देते तो मैं बयान जारी करूँगा कि वह (नेहरू) अवसरवादी हैं। नतीजों के बाद किदवई ने खामोशी साध ली। मौलाना और सी.आर. ने पटेल से सिफारिश की। पटेल ने कहा टण्डन से किदवई को कमेटी में लेने के लिए कहने की जगह वह सरकार छोड़ना पसन्द करेंगे, “नेहरु से पूछिए। वह सिर्फ इशारा करें। मैं सरकार से निकलने को तैयार हूँ।“ सी.आर. ने कहा, “मैं ऐसा कैसे कह सकता हूँ? इससे देश का नुकसान होगा।“ दो दिन बाद नेहरु बिना किदवई के वर्किंग कमेटी में शामिल होने को तैयार हो गए। टण्डन के साथ नेहरु, पटेल और मौलाना आजाद, पटेल के घर पर बैठे, जहाँ अन्य नामों पर सहमति बन गई।
पर आगे की राह टण्डन के लिए आसान नही थी। 15 दिसम्बर 1950 को सरदार पटेल की मृत्यु के बाद पार्टी के भीतरी समीकरणों में भारी फेर-बदल हुआ। अनेक समाजवादी पहले ही कांग्रेस से अलग हुए थे। जून 1951 में आचार्य कृपलानी ने कांग्रेस छोड़ी। कृपलानी के इस फैसले के कारणों में टण्डन की अगुवाई में पार्टी के पुरातनपंथी बन जाने का आरोप शामिल था। अध्यक्ष के तौर पर टण्डन को नेहरू कभी स्वीकार नही कर पाये। सितम्बर 1951 में वर्किंग कमेटी से इस्तीफा देकर नेहरु ने नए सिरे से दबाव बनाना शुरु किया। उनका यह कदम इसी महीने बंगलौर में ए.आई.सी.सी. की बैठक में शक्ति परीक्षण की तैयारी का हिस्सा था। पहला आम चुनाव पास था। पार्टी की कलह चरम पर थी। टण्डन ने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देकर प्रधानमन्त्री नेहरु की राह आसान कर दी। बंगलौर में नेहरु अध्यक्ष चुन लिए गए। अब पार्टी और सरकार दोनो नेहरु के हाथ में थी। यही वह मुकाम था, जब सत्ता में दल के संगठन की दख़ल खत्म हो गई। आने वाले दिनों कांग्रेस के इस फार्मूले को उसकी प्रतिद्वन्दी पार्टियों ने भी सिर-माथे लिया ।
01 अगस्त 1882 को इलाहाबाद में जन्मे पुरुषोत्तम दास टण्डन पढ़ाई के दौरान ही कांग्रेस से जुड़ गए। विदेशी हुकूमत के विरोध के कारण उनका म्योर कालेज से निष्कासन हुआ। 1906 में सर तेज बहादुर सप्रू के अधीन उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में वकालत शुरु की। 1921 में गांधी जी के आवाहन पर वकालत छोड़ कर खुद को देश-समाज के लिए समर्पित कर दिया। अनेक जेल यात्राएँ की। किसानों-मजदूरों को संगठित करने की कोशिशें कीं। पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। बेहतरीन वक्ता थे। आजादी की लड़ाई की अगली कतार के नेताओं में टण्डन जी की गिनती थी। भारत की सभ्यता-संस्कृति और विरासत को लेकर उन्हें गर्व था। हिन्दी भाषा के प्रति उनका समर्पण अनूठा था। 1910 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के प्रांगण में उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की। 1918 में हिन्दी विद्यापीठ और 1947 में हिन्दी रक्षक दल का गठन किया। हिन्दी की मान-प्रतिष्ठा, प्रचार-प्रसार का संघर्ष उन्होनें अंग्रेजों के दौर में शुरु किया। आजादी के बाद भी यह जारी रहा। संविधान सभा में हिन्दी का सवाल जोर-शोर से उठाया। 1937 से 1950 के 13 वर्षों की अवधि में उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष के रुप में भी वह हिन्दी के पक्ष में काम करते रहे। 1952 में लोकसभा में प्रवेश के बाद सदन में हिन्दी के लिए उनकी आवाज गूंजती रही। 1956 में राज्यसभा सदस्य चुने गये। वहाँ भी वह हिन्दी को उसका उचित स्थान न मिलने की शिकायत करते रहे। टण्डन जी का हिन्दी के लिए संघर्ष सड़क से सदन तक जीवनपर्यन्त जारी रहा। वह जिस भी मंच पर पहुँचे, वहाँ उन्होंने हिन्दी के लिए आवाज उठायी। विभाजन के वह प्रबल विरोधी थे। देश के दो टुकड़े होने की पीड़ा के चलते वह आजादी के जश्न से दूर रहे। शरणार्थियों के कष्टों ने उन्हें बेचैन किया। उनके आंसू पोंछने की कोशिशों ने उनके अपनों की निगाहें तिरछी कर दीं।अपनी इन कोशिशों की उन्होंने बड़ी राजनीतिक कीमत चुकाई। पर वह अपने या परिवार के लिए कुछ हासिल करने के लिए राजनीति और सार्वजनिक जीवन में नही आये थे।
संसद सदस्य के नाते तब चार सौ रुपया महीना मिलता था। किसी अवसर पर भुगतान करने वाले लोकसभा स्टॉफ से उन्होंने पूछा कि क्या यह राशि सीधे सरकारी सहायता कोष में नही जा सकती ? बगल में खड़े एक सांसद ने उनसे कहा, “सिर्फ चार सौ रुपये मिलते हैं। उन्हें भी आप दान कर देना चाहते हैं।“ टण्डन जी का उत्तर था, “मेरे लड़के कमाते हैं। सब मिलकर सात सौ रुपये देते हैं। तीन-चार सौ ही खर्च है। बचे रुपये भी दूसरों के काम आते हैं।“ स्वास्थ्य कारणों से टण्डन जी ने 1961 में राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। 23 अप्रैल 1961 को उन्हें भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया गया। इसी वर्ष कविवर सुमित्रा नंदन पन्त को पद्मभूषण सम्मान घोषित किया गया। टण्डन जी ने सुप्रसिद्ध साहित्यकार वियोगी हरि को इस विषय में जो लिखा, वह उनके महान व्यक्तित्व की एक झलक दिखाता है, “मुझे भारत रत्न और सुमित्रा नंदन पन्त को पद्मभूषण ? यह ठीक है कि उम्र में मैं बड़ा हूँ। मैंने भी काम किए हैं। पर आगे चलकर लोग पुरुषोत्तम दास टण्डन को भूल जाएंगे। लेकिन पन्त जी की कविताएं तो हमेशा अमर रहेंगी। उनकी कविताएं लोगों की जुबान पर जिंदा रहेंगी। उनका काम मुझसे ज्यादा स्थायी है। इसलिए सुमित्रानंदन पन्त को भारत रत्न मिलना चाहिए।“ 01 जुलाई 1962 को टण्डन जी का निधन हो गया। अब उन्हें कौन याद करता है? पर टण्डन जी को कहां गलतफ़हमी थी? जाने के बाद भी याद किये जाने की उम्मीद में तो वह देश-समाज के लिए नही जिये।… वह तो पहले ही लिख गए। ….. लोग पुरुषोत्तम दास टण्डन को भूल जाएंगे!

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