जलवायु संकट की आग को भड़का रहे हैं आरबीआई समेत कई केंद्रीय बैंक
निशांत
जीवाश्म ईंधन के कारोबार से पूंजी का सहारा हटाने में केंद्रीय बैंक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। दुनिया के अनेक केंद्रीय बैंकों ने ’नेटवर्क फॉर ग्रीनिंग द फाइनेंशियल सिस्टम’ पर दस्तखत किए हैं। इसमें जलवायु परिवर्तन द्वारा वित्तीय स्थायित्व पर पैदा होने वाले खतरे की पहचान की गई है। साथ ही इसमें जीवाश्म ईंधन को वित्तपोषण के तौर पर मिलने वाले समर्थन को कम करने के लिए कदम उठाने की सिफारिश भी की गई है। मगर सवाल यह है कि क्या ये केंद्रीय बैंक अपनी बातों का मान रख रहे हैं? हाल में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे बड़े केंद्रीय बैंकों में से 12 बैंक अब भी नीति तथा प्रत्यक्ष निवेश के जरिए जीवाश्म ईंधन को सहयोग कर रहे हैं। ऑयल चैलेंज इंटरनेशनल द्वारा कराए गए तथा 20 अन्य सिविल सोसाइटी संगठनों द्वारा अपनाए गए नए अध्ययन में इस बात पर खास तवज्जो दी गई है कि केंद्रीय बैंकों ने जीवाश्म ईंधन उत्पादन के लिए वित्तपोषण में उल्लेखनीय कमी लाने के लिए अब तक क्या कदम उठाए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक इन बैंकों ने या तो बहुत मामूली कदम उठाए हैं या फिर कुछ भी नहीं किया है। वर्ष 2016 से 2020 के बीच केंद्रीय बैंक जीवाश्म ईंधन को होने वाले वित्त पोषण को रोकने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं। इस दौरान वित्तीय बैंकों ने 3.8 ट्रिलियन डॉलर जीवाश्म ईंधन पर समर्पित कर दिए हैं। केंद्रीय बैंकों ने रिजर्व संबंधी जरूरतों या प्रूडेंशियल रेगुलेशन संबंधी प्रस्तावों की अनदेखी की है और जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर अपनी योजनाओं में जरूरी परिवर्तन करने में भी कोताही बरती है।इस रिपोर्ट में पेरिस समझौते के तहत निर्धारित लक्ष्यों के सापेक्ष केंद्रीय बैंकों द्वारा उठाए गए कदमों के आकलन के लिए 10 क्षेत्र चिह्नित किए हैं और 12 प्रमुख केंद्रीय बैंकों की कार्यप्रणाली के आकलन के लिए उनका इस्तेमाल किया है। इनमें कनाडा, चीन, भारत, जापान तथा ब्रिटेन के केंद्रीय बैंक भी शामिल हैं। आगे, 350 ओआरजी के ट्रेसी लेविस ने कहा, “यह रिपोर्ट एक बार फिर बताती है कि केंद्रीय बैंक हमारी अर्थव्यवस्था के रैफरी हैं। जब बैंक गलत काम करते हैं जैसे कि जीवाश्म ईंधन से जुड़ी कंपनियों को वित्तपोषण, तो रेफरी का काम सीटी बजा कर आगाह करना होता है। आगामी नवंबर में आयोजित होने वाली कॉप26 (यानी जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का महाधिवेशन) से पहले फेडरल रिजर्व को जलवायु संबंधी जोखिमों के प्रबंधन और जीवाश्म ईंधन के चंगुल से हमें निकालने की रफ्तार को तेज करने के लिए अपने कानूनी अधिकारों का इस्तेमाल करना होगा। अनेक केंद्रीय बैंकों ने सार्वजनिक बयान जारी करते हुए कहा है कि वह प्रदूषण मुक्त पर्यावरण के लिए सबसे सशक्त वित्तीय संस्थानों को प्रेरित करेंगे, मगर इस रिपोर्ट से जाहिर होता है कि उनमें से एक भी बैंक पेरिस समझौते के तहत निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति के आसपास भी नहीं नजर आता। केंद्रीय बैंकों के पास जीवाश्म ईंधन से दूरी बनाने के लिए उत्प्रेरक के तौर पर काम करने की अकूत शक्तियां होती हैं लेकिन वे इसका इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं।
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रिक्लेम फाइनेंस से जुड़े पॉल श्रीबर ने कहा, “यह जानते हुए भी कि जलवायु परिवर्तन उनके उद्देश्य के लिहाज से पूरी तरह अप्रासंगिक है और वे पेरिस समझौते से बंधे हुए भी हैं, मगर केंद्रीय बैंक जीवाश्म ईंधन कारोबार से जुड़ी कंपनियों की सस्ते दर पर भरपूर वित्तपोषण करके मदद जारी रखे हुए हैं। जहां ईसीबी और बैंक ऑफ इंग्लैंड अपनी कुछ गतिविधियों को पेरिस समझौते के अनुरूप बनाने पर विचार कर रहे हैंह वही यह रिपोर्ट इस बात को भी रेखांकित करती है कि वह जब तक जीवाश्म ईंधन संबंधी मजबूत नीतियां नहीं अपनाते तब तक अपने मकसद में नाकाम रहेंगे। इसके लिए उन्हें जीवाश्म ईंधन संबंधी नई परियोजनाएं विकसित कर रही कंपनियों को सहयोग देना बंद करना होगा। इस रिपोर्ट में रेखांकित किए गए कुछ ठोस सकारात्मक कदमों में उपयोगी शोध का प्रकाशन, संपत्तियों के प्रदूषणकारी होने या स्वच्छ होने की बात तय करने के लिए मजबूत टैक्सोनॉमी जारी करना और जलवायु परिवर्तन से निपटने के महत्व संबंधी बयान जारी करना शामिल है। सिर्फ यूरोपियन सेंट्रल बैंक, द बैंक दी फ्रांस और द बैंक ऑफ इंग्लैंड ने ही इस दिशा में कुछ कदम उठाए हैं। वहीं, भारतीय रिजर्व बैंक तथा पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने भी कुछ छोटे कदम उठाए हैं। नेटवर्क फॉर ग्रीनिंग एंड फाइनेंशियल सिस्टम के सदस्य होने के बावजूद इनमें से किसी भी बैंक ने जीवाश्म ईंधन के वित्तपोषण को रोकने की दिशा में कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाया है। इसमें जलवायु परिवर्तन द्वारा वित्तीय स्थायित्व पर पैदा होने वाले खतरे की पहचान की गई है।
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