जयंती पर विशेष : जब फ़िराक ने ठुकरा दिया इंदिरा गांधी का प्रस्ताव

साहित्य डेस्क

’आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअस्रों, जब ये ख्याल आयेगा उनको, तुमने फ़िराक़ को देखा था…।’ फ़िराक गोरखपुरी की बड़ी शख्यियत को बयां करती ये लाइनें उनके जाने के वर्षों बाद आज भी सच साबित हो रही हैं। फिराक साहब को रूबरू देखने वालों में चंद ही बचे हैं लेकिन उनकी शायरी आज भी दुनिया भर के लोगों के जेहन में जिंदा है। हिन्दी भाषी इलाके में पैदा हुए। अंग्रेजी के विद्वान हुए। उर्दू में शायरी कर पूरी दुनिया में मकाम बनाया। रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी का नाम देश और दुनिया के तमाम साहित्यप्रेमियों के बीच बड़े अदब से लिया जाता है। उनके अपने शहर गोरखपुर में भी उनका बड़ा नाम है। यह अलग बात है कि उनके चंद निशां यहां बचे हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर फिराक गोरखपुरी के विद्यार्थी रहे भोजपुरी के प्रसिद्ध साहित्यकार रवीन्द्र श्रीवास्तव उर्फ जुगानी भाई के पास उनसे जुड़े किस्सों का भंडार है। वह बताते हैं कि गोरखपुर महानगर के तुर्कमानपुर स्थित फिराक गोरखपुर के लक्ष्मी निवास की पहचान कभी देश भर के साहित्यकारों और रचनाकारों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बीच थी। उनकी अगुवाई में लक्ष्मी निवास से सहजनवां के भीटी रावत तक अंग्रेजों के खिलाफ बड़ा मार्च निकला था। अफसोस! अब उस भवन में ऐसा कोई चिह्न नहीं है जिससे अहसास हो सके कि यहां कभी रघुपति सहाय फ़िराक गोरखपुरी रहा करते थे। अब यहां एक स्कूल चलता है।
28 अगस्त 1896 को गोला तहसील के बनवारपार में पैदा हुए रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी देश सेवा और साहित्य साधना करते हुए 3 मार्च 1982 को इस दुनिया को अलविदा कह गए थे। फिराक का जीवन किसी से छिपा नहीं है। फिराक स्नातक के बाद ही पीसीएस बन गए। हालांकि उन्होंने महात्मा गांधी के एक भाषण को सुनने के नौकरी छोड़ दी। वह भी स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। इसके लिए उन्हें डेढ़ साल की कैद और 500 रुपये जुर्माना भी भरना पड़ा। फिराक इलाहाबाद चले गए। फिराक प्रसिद्द अधिवक्ता गोरख प्रसाद इबरत के पुत्र थे। श्री प्रसाद पंडित मोतीलाल नेहरू के बेहतरीन दोस्तों में शुमार थे। फिराक का आनंद भवन आना-जाना शुरू हो गया। उनकी मुलाकात पं. जवाहरलाल नेहरू से हुई और फिर वे उनके मित्र बन गए। पिता की मृत्यु के बाद फिराक पर घर का खर्च, बहनों की शादी और पढ़ाई की जिम्मेदारी आ गई। पंडित नेहरू ने इसे भांप लिया और उन्हें कांग्रेस कार्यालय का सचिव बना दिया लेकिन फिराक इसे अपनी मंजिल नही माने। फिराक ने गोरखपुर स्थित लक्ष्मी भवन बेच दिया। बहनों की शादी की। बाकी कर्ज अदा किए और सेंट जांस कॉलेज आगरा में पढ़ाने लगे। यहां इलाहाबाद लौटे और विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में बतौर प्रवक्ता पढ़ाने लगे। यही वह पड़ाव था जब उन्होंने लेखनी के जरिए अपनी अलग पहचान बनानी शुरू की। उनकी मिशअल शोलये सास, गुले नगमा, धरती की करवट, चिरांगा, पिछली रात ,शेरिस्तान,शब नमिस्तान,गजलीस्तान,हजार दास्तान जैसी कविता संग्रह लोगो के दिलों में आज भी अलग मुक़ाम बनाए है।

भारत चीन युद्ध के समय लिखी यह गजल :

सुखन की शम्मां जलाओ बहुत उदास है रात
नवाए मीर सुनाओ बहुत उदास है रात
कोई कहे ये खयालों और ख्वाबों से
दिलों से दूर न जाओ बहुत उदास है रात
पड़े हो धुंधली फिजाओं में मुंह लपेटे हुए
सितारों सामने आओ बहुत उदास है रात।

फ़िराक गोरखपुरी को मिले सम्मान

फ़िराक साहब को 1961 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और 1967 में पद्म भूषण से भी नवाजा गया था। इसके आलावा 1970 में फ़िराक साहब को दो बड़े एजाजात और इनामात से भी नवाजा गया था, मगर उन्होंने फ़िराकपरस्ती और फ़िराक फहमी को ही अपने लिए सबसे बड़ा इनामी एजाज समझा। रवींद्र नाथ टैगोर के बाद फ़िराक ही ऐसे हिन्दुस्तानी शायर थे, जिन्हें दुनिया ने दिल से लगाया। फ़िराक को यह मुकाम यूं ही नहीं मिला। उन्होंने अपनी कहानी को कुछ यूं ही बयां किया है कि ’मैंने इस आवाज को मर मर के पाला है फ़िराक। आज जिसकी निर्मली हे शम्मे मेहराब हयात।’ रवीन्द्र श्रीवास्तव उर्फ जुगानी भाई ने बताया कि बड़े समाजवादी नेता शिब्बन लाल सक्सेना के कहने पर फिराक गोरखपुरी आजादी के बाद पहले चुनाव में गोरखपुर से लड़ गए थे। एक सभा में उन्होंने खुद ही कांग्रेस उम्मीदवार सिंहासन सिंह की तारीफ कर दी। फिराक वह चुनाव हार गए। लेकिन अपनी बेबाकी और शायरी के जरिए जनता के दिलों पर तब भी राज करते रहे, आज भी छाये हुए हैं। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी फिराक को राज्यसभा में भेजने की बात कही। फ़िराक ने कुछ देर सोचा। शुक्रिया कहते हुए कहा कि आप मेरी इसी तरह ख्याल करती रहें, यही मेरे लिए सबसे बड़ी सौगात होगी।

उनकी कुछ पंक्तियां :

एक दुनिया है मेरी नज़रों में
पर वो दुनिया अभी नहीं मिलती।
रात मिलती है तेरी जुल्फ़ों में
पर वो आरास्तगी नहीं मिलती।
यूं तो हर इक का हुस्न काफ़िर है
पर तेरी काफ़िरी नहीं मिलती।
बासफ़ा दोस्ती को क्या रोयें
बासफ़ा दुश्मनी नहीं मिलती।
आंख ही आंख है मगर मुझसे
नरगिसे-सामरी नहीं मिलती।
जब तक ऊंची न हो जमीर की लौ
आंख को रौशनी नहीं मिलती।
सोज़े-ग़म से न हो जो मालामाल
दिल को सच्ची खुशी नहीं मिलती।

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