संविधान में संशोधन का सवाल
(डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के जन्म दिन पर विशेष)
राज खन्ना
क्या साधारण बहुमत से संविधान में संशोधन की व्यवस्था की जानी चाहिए? नवम्बर 1948 में प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉक्टर बीआर अंबेडकर द्वारा संविधान सभा के समक्ष संविधान का प्रारूप पेश किए जाने के बाद इस सवाल पर विशद चर्चा हुई। डॉक्टर अंबेडकर ने इस मौके पर दिए अपने भाषण में अमेरिका और आस्ट्रेलिया की संघीय व्यवस्था की कठोरता का जिक्र किया था। उन्होंने आस्ट्रेलिया के संविधान को और लचीला बनाने के लिए वहां के संविधान के उस प्रावधान की जानकारी दी थी कि संसद द्वारा कोई अन्य व्यवस्था होने तक अस्थायी संविधान के कुछ अनुच्छेदों को लागू रखा जाए। उन्होंने भारतीय संविधान के प्रारूप में शामिल अस्थायी प्रकृति के अनुच्छेदों की चर्चा करते हुए बताया था कि संसद अधिक उपयुक्त प्रावधान बनाकर उन्हें कभी भी प्रतिस्थापित कर सकती है। इसके बाद उन्होंने अनुच्छेद 304 में संशोधन प्रक्रिया में दोहरे उपायों का हवाला देते हुए यह साफ किया था कि भारत के संघ को लचीला स्वरूप प्रदान किया जाएगा।
इस मौके पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि चूंकि नई संसद भारत के हर वयस्क नागरिक का प्रतिनिधित्व करेगी इसलिए निर्वाचित सदन को इसमें (संविधान में) स्वेच्छा से बदलाव का अवसर मिलना चाहिए। ग्रेनविल ऑस्टिन ने अपनी किताब ’भारतीय संविधान : राष्ट्र की आधारशिला’ में 17 सितंबर 1949 को संविधान सभा में इस सवाल पर हुई गम्भीर चर्चा का ब्यौरा दिया है। अनुच्छेद 304 में दो संशोधनो का प्रस्ताव पेश करते हुए डॉक्टर अम्बेडकर ने कहा था कि इस विषय पर वह अपने विचार ’व्यापक बहस’ का माहौल बनने के बाद रखेंगे। हालांकि इस सवाल पर अम्बेडकर के अलावा केवल आठ सदस्यों ने ही बहस में हिस्सा लिया। इनमें छह सदस्य संविधान संशोधन प्रक्रिया को आसान बनाने के पक्ष में थे। उनका यह भी प्रस्ताव था कि शुरुआत के तीन से पांच वर्ष तक संविधान में साधारण बहुमत से संशोधन की व्यवस्था होनी चाहिए। पीएस देशमुख का कहना था कि कई ऐसे प्रावधान हैं, जिनका क्रियान्वयन कठिन होगा। यह संविधान कई मामलों में दोषपूर्ण है और रहेगा। भविष्य की संसदों द्वारा समूचे संविधान को खारिज करने का खतरा झेलने से बेहतर होगा कि संविधान को बदल दिया जाए। हरि विष्णु कामथ ने अफसोस के साथ सवाल किया कि पंडित नेहरू ने अपना संशोधन प्रस्ताव पेश क्यों नही किया? उनका कहना था कि संशोधन जैसे विषय को हल्के ढंग से नही लेना चाहिए। बेशक किसी भी देश की संविधान सभा की हैसियत भविष्य की संसद से ऊंची होती है, लेकिन इस संविधान सभा का गठन अप्रत्यक्ष चुनाव, साम्प्रदायिक निर्वाचक मंडल तथा सीमित मतदाताओं के जरिये हुआ है, इसलिए इसकी हैसियत भविष्य की किसी संसद से श्रेष्ठ नहीं मानी जा सकती। कामथ की दलीलों से महावीर त्यागी भी सहमत थे, जिनकी नजर में संविधान सभा एक ’कांग्रेसी संविधान’ तैयार कर रही थी। जुगुल किशोर का मानना था कि संविधान में कुछ त्रुटियां हो सकती हैं, इसलिए संशोधन प्रक्रिया को कुछ वर्षों की अवधि के लिए आसान रखना चाहिए। केवल आरके सिध्वा एकमात्र सदस्य थे, जिन्होंने संशोधन की प्रस्तावित व्यवस्था को पर्याप्त बताया था।
डॉक्टर अम्बेडकर ने अप्रत्यक्ष चुनाव के जरिये गठन के कारण संविधान सभा के संविधान रचना के अधिकार के सवाल पर कड़ा एतराज किया था। उन्होंने कहा कि संविधान एक बुनियादी दस्तावेज होता है और अगर उसमें संशोधन के लिए साधारण बहुमत का सहारा लिया गया तो विकट अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। अम्बेडकर ने संविधान के उन हिस्सों के बारे में, जिनमें संशोधन के लिए प्रांतीय अनुमोदन की आवश्यकता पड़ती थी, सभा को बताया कि हम इस तथ्य को नहीं भुला सकते कि हमनें बहुत से मामलों में प्रांतीय स्वायत्तता का अतिक्रमण किया है, परंतु हमारा इरादा अभी भी यही है और इसके लिए हमनें प्रयत्न भी किया है कि संविधान की संरचना का मौलिक स्वरूप अपरिवर्तित रहे। उनका कहना था कि शक्तियों और राजस्व के विभाजन के प्रावधानों में प्रांतों को अपनी बात कहने का मौका न देना संविधान के बुनियादी आदर्शों का उल्लंघन होगा। डॉक्टर अम्बेडकर के प्रत्युत्तर पश्चात संविधान सभा ने संविधान संशोधन से सम्बंधित वही अनुच्छेद अंगीकार किया जिसे प्रारूप समिति ने पेश किया था अर्थात सदन में उपस्थित सांसदों के दो तिहाई बहुमत और विशिष्ट मामलों में देश के आधे राज्यों की विधायिकाओं से उसका अनुमोदन जरूरी होगा।
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