विचार : रैलियों पर रोक सही

लेखकसिद्वार्थ शंकर
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बाद अब भाजपा ने पश्चिम बंगाल में तत्काल प्रभाव से बड़ी रैलियों, जन-सभाओं एवं आयोजनों पर रोक लगाने का निर्णय लिया है। भाजपा बंगाल चुनाव के बाकी बचे तीन फेज में छोटी-छोटी सभाएं करेगी। इसके तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य केंद्रीय मंत्रियों की सभाओं में 500 से ज्यादा लोग शामिल नहीं हो सकेंगे। सभी सभाएं खुली जगहों पर आयोजित की जाएंगी। कोरोना के बढ़ते मामलों का असर बंगाल के बाकी बचे चरणों के चुनाव प्रचार पर भी दिखने लगा है। अब ममता बनर्जी ने कोलकाता में प्रचार नहीं करने का फैसला किया है। वह प्रचार के आखिरी दिन 26 अप्रैल को एक सिंबॉलिक मीटिंग में शामिल होंगी। उन्होंने सभी जिलों की रैलियों का अपना समय 30 मिनट तक सीमित दिया है। इससे पहले राहुल गांधी ने अपनी सभी रैलियों को निरस्त कर दूसरे नेताओं को भी इसका अनुसरण करने को कहा था। देश में कोरोना की रफ्तार जिस तेजी से बढ़ रही है, उसे देखते हुए रैलियों पर रोक या उसका स्वरूप बदलने की जरूरत महसूस की जा रही थी। कुंभ खत्म होने के बाद पार्टियों पर इसका दबाव भी बढ़ गया था। अब पार्टियों ने जो फैसला लिया है, उसकी सराहना की जानी चाहिए। यह कदम काफी पहले उठाना चाहिए था, क्योंकि चुनावी राज्यों में कोरोना का विस्फोट हुआ है और मामलों में कई गुना बढ़ोतरी हुई है।लेखकसिद्वार्थ शंकरलेखकसिद्वार्थ शंकर
इसमें कोई संदेह नहीं कि संक्रमण के तेजी से बढ़ते मामलों ने गंभीर चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। देश जिस अपूर्व संकट से गुजर रहा है, वैसा शायद कई दशकों में नहीं देखा गया। अस्पतालों में बिस्तरों, दवाइयों और ऑक्सीजन सिलेंडरों की भारी कमी पड़ गई है। यह स्थिति किसी एक राज्य की नहीं बल्कि महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्यप्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा जैसे कई राज्यों के हालात चिंताजनक हैं। जल्द ही पश्चिम बंगाल भी में इनमें शामिल हो जाए तो अचरज नहीं। इसमें अब कोई संदेह नहीं कि केंद्र और राज्य सरकारों हाथ-पैर फूल रहे हैं। प्रधानमंत्री को एक बार फिर उच्चस्तरीय बैठक करनी पड़ी। उन्होंने दवाइयों और ऑक्सीजन का उत्पादन बढ़ाने को कहा है। राज्य सरकारें अपने-अपने यहां स्थिति काबू में होने के दावे तो करती दिख रही हैं, लेकिन श्मशानों में लाशों के ढेर हकीकत उजागर करने के लिए काफी हैं। सवाल उठ रहे हैं कि आखिर स्थिति बद से बदतर हुई क्यों? दावा यह किया जा रहा है कि पिछले एक साल में हमने काफी कुछ सीखा, पर आज जब रोंगटे खड़े कर देने वाले हालात हैं तो लग रहा है कि साल भर में हम कोई ठोस तैयारी नहीं कर पाए। पिछले साल सितंबर तक मरीजों की संख्या एक लाख के करीब पहुंची थी। तब से ही विश्व स्वास्थ्य संगठन और विशेषज्ञ सचेत करते रहे हैं कि भविष्य में आने वाली दूसरी लहरें ज्यादा तेज और घातक होंगी। सवाल है कि क्या ऐसी चेतावनियों को हमने जरा भी गंभीरता से लिया?
दैनिक संक्रमितों का आंकड़ा ढाई लाख तो पार कर ही गया और तीन लाख पहुंचने का अंदेशा है। हम अमेरिका से भी ज्यादा भयानक स्थिति में जा रहे हैं। गौर इस बात पर करने की जरूरत है कि आज लोग सिर्फ संक्रमण से दम नहीं तोड़ रहे, बल्कि समय पर इलाज नहीं मिल पा रहा है, इसलिए मौतों का आंकड़ा बढ़ रहा है। जरूरतमंदों को आक्सीजन नहीं मिल रही है। रेमडेसिविर जैसी दवाओं की भारी कमी है और इसकी कालाबाजारी हो रही है। अस्पतालों में अब और जगह नहीं बची है। ये हालात बता रहे हैं कि हम कुछ भी खास नहीं कर पाए। जब संक्रमितों का आंकड़ा दो से तीन लाख तक जाने का अनुमान था तो ऑक्सीजन और दवाइयों के बंदोबस्त क्या पहले से नहीं किए जाने थे? अगर चीजें उपलब्ध रहतीं तो हजारों जानें बचाई जा सकती थीं।
बहुत पहले तय हो चुका था कि महामारी से निपटने के लिए सबसे ज्यादा जोर जांच पर होना चाहिए। लेकिन कई राज्यों ने संसाधनों का अभाव बता कर व्यापक स्तर पर जांच से पल्ला झाड़ लिया। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि संक्रमण इसीलिए तेजी से फैला। आज जांच केंद्रों पर भारी भीड़ है। लोगों को घंटों कतार में खड़े होना पड़ रहा है और रिपोर्ट आने में कई दिन लग जा रहे हैं। साफ है कि हम जांच के लिए भी पुख्ता ढांचा और नेटवर्क नहीं बना पाए। यह सच है कि संक्रमण के मामलों में लापरवाही बड़ा कारण बनी है। कुंभ और चुनावी रैलियों में उमड़ी भीड़ ने आग में घी का काम किया। पहली लहर के बाद जरा-सी राहत मिलते ही सरकारें निश्चिंतता जताने लगीं और लोग बेपरवाह हो गए।

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