मुशायरों में सच का प्रतिशत नापते इकबाल रिजवी

देव प्रकाश चौधरी

बौद्धिक आलस्य के धनी इकबाल रिजवी (अगर वे मेरे पड़ोसी न रहे होते तो शायद न जान पाता) मुशायरों के ‘कल-आज-कल’ पर अपनी उस किताब को लेकर हाजिर हैं…जिसकी प्रतीक्षा उनके स्वभाव में स्थाई घर बना चुकी थी-‘क्या रहा है मुशायरों में।’ लंबे शोध के बाद… लिखे को मिटाने, फिर से लिखने, पांडुलिपी तैयार करने, प्रकाशक तक पहुंचने और छपकर आ जाने तक उनके दिल और दिमाग में भी एक ‘मुशायरा’ चलता रहा। अब किताब सामने है। वाणी प्रकाशन ने छापी है। सुंदर छपी है। उन्होंने चहकते हुए पूछा था-“आपको मिल गई किताब?” किताब मिल गई थी। पढ़ी भी। विस्तृत बातें तो किसी पत्रिका में, लेकिन यहां फेसबुक पर कैप्सूल में ही सही किताब पर कुछ बातें तो जरूरी हैं ही।
हर समाज के अपने मुशायरे होते हैं और समाज उनसे व्यवाहरगत रिश्ते के लिए कोई न कोई तरीका ढूंढ ही लेता है। कभी मुशायरों में बुजुर्गों की एक खास जगह हुआ करती थी…अब कुछ कम। यहां इस किताब में कभी झूठ और अनैतिकता का स्थाई प्रतिपक्ष रहे मुशायरे में सच का प्रतिशत नापते इकबाल रिजवी अच्छे लगे। मुशायरों को लेकर उनकी वयस्क समझ मुशायरों के ओर-छोर से सहज परिचय करवाती है। भले ही छिटपुट फिल्मी सौंदर्यमूलक आस्वाद के लिए, कुछ विचारों को लेखकीय उत्साह में इधर-उधर फेंट दिया गया हो, लेकिन हिंदी में मुशायरों का इतिहास जिसे चाहिए, उन्हें यहां आना चाहिए। जब समाज में असली सवालों की पहचान गुम होती जा रही थी, तब मुशायरे ने आकर कुछ रोशनी जलाई थी। तब मुशायरों के शायरों में एक प्रश्नवाचकता होती थी। उन सवालों को हम इस किताब में लेखक की बेचैनी के साथ महसूस कर पाते हैं।
शिल्प और कथ्य के द्वैत को छलांग लगाकर पार करते इकबाल ने तथ्यों का प्रजातांत्रिक आदर किया है। जिस आत्मिक बल से उन्होंने मुशायरों के आरंभ से लेकर आज के मंच तक की बात (खुमार बाराबंकवी, अख्तरूल ईमान, सागर खय्यामी, वसीम बरेलवी, निदा फाजली,कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी सहर, शहरयार, मुनव्वर राणा को समेटते हुए ) कही है, उससे एक प्रामाणिक सघनता आई है और एक दर्द भी आया है-“शायरी दुनिया का अकेला ऐसा इंस्टीट्यूट है, जिसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता… कहां रुकेगा कारवां खुदा जाने…।” हालांकि, सोशल मीडिया के इस दौर में ऐसे महत्वपूर्ण विषयों पर लेखन अक्सर कुपाठ का शिकार होते रहे हैं और कुछ लोग तो अपाठ की स्थिति स्वीकार करने लगे हैं, फिर भी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि इकबाल रिजवी खूब पढ़े जाएंगे। मीर के शब्दों के साथ उन्होंने किताब में अपना एक अध्याय खत्म किया है, मैं भी उसे दुहराना चाहूंगा-“क्या रहा है मुशायरों में अब…लोग कुछ जमा आन होते हैं।”

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