प्रेम लीलाओं के छह प्रकार

डा. माधव राज द्विवेदी

सुदूर प्रवास के बाद प्रेमी युगल का जो मिलन होता है, वह अपूर्व आनन्द देने वाला होता है। यदि वह मिलन अचानक सम्पन्न होता है तो आनन्द की मात्रा बढ़ जाती है। इसी कारण से इसे समृद्धमान सम्भोग की संज्ञा दी गई है। यह मिलन थोड़े समय के लिए होता है, किन्तु विघ्न बाधा से रहित होता है। वैष्णव पदावली के अन्तर्गत राधा-कृष्ण के मिलन के सन्दर्भ में रसोद्गार तथा स्वप्न मिलन के रूप में इसके दो प्रकार मिलते हैं।
प्रेम वैचित्र्य के अनन्तर होने वाला मिलन अत्यन्त आनन्दपूर्ण होता है। इसीलिए इसे सम्पन्न सम्भोग की संज्ञा दी गई है। इस स्थिति में नायक नायिका का अनुराग अत्यन्त प्रगाढ़ हो जाता है। इसमें दुःख, मलिनता, क्रोध, रोष, अहंकार आदि का लेश मात्र भी नहीं रहता। अतः इसका मिलन सुख अत्यन्त आनन्दपूर्ण होता है। वैष्णव रस शास्त्र के अनुसार राधा-कृष्ण से सम्बन्धित सम्पन्न सम्भोग की वसन्त लीला, होली लीला, डोल लीला, झूलन लीला, निद्रा और धूर्तता के रूप में छह प्रेमलीलाएं परिलक्षित होती हैं। वसन्त लीला के प्रकरण में रसावतार श्रीकृष्ण से नवल नागरी श्री राधा और उनकी सखियां खेलने के लिए वन में जाती हैं और महोत्सव मनाती हैं। इस प्रसंग में वसन्त के वैभव विलास का भी सुन्दर और प्रभावोत्पादक वर्णन किया गया है। होली लीला प्रकरण में राधा और उनकी सखियां कृष्ण और उनके सखाओं के साथ होली खेलती हैं। वे गीत, नृत्य, वाद्य और रंग वर्षा से सम्पूर्ण पर्यावरण को रस स्निग्ध कर देती हैं। हिन्दी के निर्गुण तथा सगुणमार्गी कवियों की वाणियों में होली लीला का बड़ा ही सरस एवं वैभवपूर्ण वर्णन किया गया है। डोल लीला एक प्रकार से हिंडोले पर बैठकर होली खेलना है। सखियां राधा-कृष्ण को हिंडोले पर बैठाकर झूला झुलाती हैं। मनोरम प्रकृति के मधुर परिवेश में बड़े उल्लासमय वातावरण में सखियां राधा-कृष्ण को झूला झुलाती हैं। निद्रा प्रकरण में निद्रा के मधुर क्रोड में विश्रामरत राधा-कृष्ण के सौन्दर्य का मादक वर्णन किया गया है। राधा और कृष्ण रसमत्त होकर सुखपूर्वक तड़ित जड़ित जलद की भांति एक दूसरे से लिपटकर ऐसे सोए हुए परिलक्षित होते हैं, जैसे चन्द्रकला चन्द्रमा से एकमेक हो जाती है।
प्रेमी युगल एक दूसरे से मिलने के लिए धूर्तता भी करते हैं। अपने प्रणय व्यापार को स्वजनों से छिपाने के लिए उन्हें छल कपट का भी सहारा लेना पड़ता है। गौडीय वैष्णव पदावली में स्वयं दौत्य प्रकरण में इस मिलन दशा की बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। सूरदास ने भी माला खोजने के बहाने राधा के यमुना तट जाने का सरस वर्णन किया है। कभी-कभी देव पूजा के बहाने भी नायिका वन में जाने का उपक्रम करती है। राधा कभी मार्ग भूल जाने, कभी भ्रमर को भगाने, कभी मोतिसारी ढूंढ़ने आदि का बहाना कर कृष्ण को एकान्त कुंज में जाने का संकेत करती हैं अथवा स्वयं एकान्त स्थल में जाती हैं। उज्ज्वल नीलमणि में श्री रूप गोस्वामी ने इस प्रकार के श्रृंगार के चतुर्विध भेदों में सम्पन्न होने वाली अनेक विलास क्रीड़ाओं का निर्देश किया है जिनमें संदर्शन, संस्पर्श, संजल्प, संप्रयोग, रभसरभस, वार्त्तालाप, मार्गावरोध, कुंज क्रीड़ा, जल क्रीड़ा, वृन्दावन क्रीड़ा, यमुना जल केलि, नौका विहार, चीर हरण, वंशी चोरी, पुष्प चौर्य, दान लीला, कुंजों में आंख मिचौली, मधुपान, कृष्ण द्वारा गोपी वेश धारण, कपट निद्रा द्यूत क्रीड़ा, वस्त्राकर्षण, चुम्बन, आलिंगन, बिम्बाधर सुधा पान, निधुवन, रमण और अन्त में सम्भोग विशेष उल्लेखनीय हैं।

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