देव लोक में लोकतंत्र की बयार…

ज्ञान सिंह

हम सभी जानते हैं कि देवलोक में लोकतंत्र की अवधारणा नहीं है। जब से हमने और अन्य सभी ने होश सँभाला होगा, इन्द्र देव को ही देवराज के पद क़ब्ज़ा जमाये देखा और सुना है। इससे यह नतीजा निकलता है कि देवता लोग मनुष्यों की भाँति असंतोषी और महत्वाकांक्षी स्वभाव के नहीं होते हैं, अन्यथा एक ही देवता को अनंतकाल तक क्यों बर्दाश्त कर रहे होते। हमारी धरती में तो कुर्सी में बैठते ही दूसरे लोग उसकी टाँग खींचना चालू कर देते हैं और उसकी नाक में तब तक दम किये रहते हैं, जब तक उसे नीचे न ढकेल दें। पर धीरे-धीरे देव लोक के माहौल में भी कुछ सालों से बदलाव दिखाई देने लगा है। सुनने में आ रहा है कि जब से पृथ्वी लोक से कुछ राजनीतिक आत्मायें पूजा पाठ और अन्य धार्मिक अनुष्ठान करा कर येन केन प्रकारेण जुगाड़ से स्वर्ग पहुँचने लगी हैं, वह देव लोक के मूल निवासियों के मन को विषाक्त कर दे रहीं हैं और उन लोगों में भी मानव सुलभ महात्वाकांक्षायें, लोभ लालच और दूसरी वासनायें जन्म लेने लगी हैं। सूर्य देव और अग्नि देव जैसे ताकतवर और दमदार देवताओं के मन में यह विचार आने लगा है कि आखिर इन्द्र देव में ऐसी कौन सी ख़ासियत है कि उन्हें लगातार देवराज के पद पर बिठाये रखा गया है। उल्टे इन्द्र विषम परिस्थितियों में हमेशा फेल होते रहें हैं और अपनी कुर्सी बचाये रखने के लिए बार बार त्रिदेवों की शरण में दौड़ते दिखाई देते रहें हैं। दबी ज़ुबान से कई देवता यह भी कहते सुने गये हैं कि इन्द्र ने अपने दम पर असुरों से कभी कोई लडा़ई नहीं जीती है। उन्हें ब्रह्मा विष्णु और महेश ने ही हर बार कोई न कोई तरीक़ा बताया है और मदद मुहैया करायी है। धीरे-धीरे इस तरह की चर्चायें समस्त देवलोक में फैलने लगी और एन्टी इन्कम्बेंसी की गुप्त लहर देव समाज में व्याप्त हो गई।
देवर्षि नारद भी अन्दरखाने इन्द्र देव से संतुष्ट नहीं थे और कई छोटे बड़े मसलों को लेकर उनसे खार खाये बैठे थे और हिसाब बराबर करने के लिये मौके की तलाश में रहते थे। देव समाज में व्याप्त इस असंतोष के वातावरण में उन्हें गोल्डेन अपारच्युनिटी दिखाई देने लगी। टहलते हुए वह अपने पिता ब्रह्मा जी के पास पहुँच गये और नमक मिर्च लगा कर देव लोक के हालात बता डाले। ब्रह्मा जी खुद इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते थे इसलिए उन्होंने नारद को सलाह दी कि वह विष्णु और महेश को भी स्थिति से अवगत करा दें। सबकी राय मशविरा के बाद ही कोई निर्णय लेना उचित होगा। ब्रह्मा जी की सलाह पर नारद जी उसी क्षण कैलास के लिए रवाना हो गये। महादेव उस समय एक वृक्ष के नीचे स्थित शिला पर गहन योग मुद्रा में बैठे हुए थे। इसलिए गणेश जी ने उन्हें कुछ समय प्रतीक्षा करने के लिए कहा। कुछ अन्तराल के बाद नारद जी महादेव के समक्ष बुलाये गये। देवर्षि से सारा वाक़या विस्तार से सुनने के बाद महादेव ने कहा, ‘नारद! तुम तो जानते हो कि सांसारिक मामले मेरे कार्य क्षेत्र में नहीं आते। मेरा संबंध तो केवल सांहारिक मामलों से होता है। सांसारिक मामले देखना और सृष्टि के सही संचालन का दायित्व तो विष्णु जी का है। अतः हे वत्स! तुम विष्णु के पास जाकर इस झमेले का निदान कराओ। वैसे भी पृथ्वी में फैले कोरोना ने आजकल मेरा वर्क लोड बहुत बढ़ा दिया है।’ नारद जी को पहले से ही इन दोनों शीर्ष देवों की ऐसी ही प्रतिक्रिया का अनुमान था। फिर भी भविष्य में इन देवों के विपरीत दखल को रोकने के उद्देश्य से वह वहाँ चले गए थे। अब देवर्षि सीधे क्षीर सागर की ओर चल पड़े। हमेशा की तरह प्रभु श्री हरिनारायण शेषशैया पर लेटे हुए लक्ष्मी जी के कर कमलों से सेवा आनंद प्राप्त कर रहे थे और हमेशा की तरह नारद नारायण-नारायण का उद्घोष करते हुए बिना कुन्डी खटखटाये उनके समक्ष उपस्थित हो गये। सर्वज्ञ हरि नारद के आने का कारण जान रहे थे। फिर भी मंद-मंद मुस्कुराते हुए वह बोले, ‘अचानक कैसे आगमन हुआ देवर्षि! सर्वत्र कुशल तो है?’
नारद अपने चेहरे पर गंभीर चिंता के भाव लाते हुए बोले, ‘प्रभू! मुझे तो कुछ भी कुशल नहीं लग रहा है। देवलोक में इन्द्र के प्रति घोर असंतोष की भावना व्याप्त हो रही है। देव समाज के लोग चाहते हैं कि लोकतान्त्रिक तरीक़े से देवराज के पद का चुनाव हो। लगातार एक ही देवता बिना देवमत के थोपे जाने से अंदरूनी तौर पर विद्रोह की चिंगारी सुलगती जा रही है। यदि शीघ्र ही कोई रास्ता निकाला नहीं गया तो तख्ता पलट तक की संभावनायें बन सकती हैं। आसुरी शक्तियाँ इस स्थिति का लाभ उठाने को तैयार बैठी हैं।’ श्री हरि कुछ क्षणों तक सोचते रहे और नारद को सांत्वना देते हुए बोले, ‘इसमें अधिक चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है। देवताओं की भावनाओं का अनादर नहीं होना चाहिए। आखिर पृथ्वी लोक के कई देशों में लोकतांत्रिक सरकारें बख़ूबी चल रहीं हैं। मैं समझता हूँ कि लोकतांत्रिक प्रणाली का जनता को और कोई लाभ भले न हो, पर लाखों लोगों को इससे एक साथ रोज़गार मिल जाता है और शेष लाखों करोड़ आसानी से यह सोचते हुए बेवकूफ बन जाते हैं कि उन्होंने सरकार बनाई है। मैं सोचता हूँ कि इस लाजवाब व्यवस्था को तत्काल देव लोक में लागू कर दिया जाये। यह काम जल्दी और ठीक ढंग से हो जाये इसके लिए में तुम्हें मुख्य निर्वाचन अधिकारी नियुक्त करता हूँ। तुम शीघ्र मतदाता सूची तैयार कराओ। चुनाव की तिथियाँ घोषित कर चुनाव सम्पन्न करा डालो। चुनावी विवादों के निपटारे के लिए यमराज को चीफ जस्टिस तैनात किया जाता है, जो चुनावी याचिकाओं का निस्तारण करेंगे। शांतिपूर्ण और निष्पक्ष चुनावों के सभी बंदोबस्त कर लिए जायें।’
श्री हरिनारायण के इस फ़ैसले की खबर पूरे देव लोक में जंगल में आग की तरह फैल गई। देवताओं में भारी जोश दिखाई देने लगा और सभी चुनावी चर्चाओं में मशगूल हो गए। भावी प्रत्याशी अपनी अपनी गोटें फिट करने में जुट गये। उधर नारद जी मतदाता सूची बनाने अन्य ज़रूरी इंतज़ामों को फाइनल करने में लग गए। जब मतदाता सूची का प्रकाशन हुआ तो देवताओं में खलबली मच गयी। सूची में तमाम ऐसे नाम थे जिन्हें कोई जानता भी नहीं था। पता चला कि कुछ ऐसे नाम थे जो देवता ही नहीं थे और कुछ पृथ्वी लोक के निवासी जान पड़ते थे। ऐसे विवादित नामों में राहु और केतु भी शामिल थे। इसके अलावा नरेंद्र देव, राहुल देव, केजरी देव, अखिलेश देव, भगवती माया, भगवती ममता जैसे तमाम नाम थे जो देव लोक के निवासी नहीं बताये जा रहे थे। तमाम देवताओं द्वारा राहु और केतु के फ़र्ज़ी देवता होने तथा नरेंद्र देव, केजरी देव आदि के विदेशी मूल के होने और शुद्ध देवता न होने की आपत्तियाँ दाखिल कर दी गईं।
मुख्य निर्वाचन अधिकारी नारद जी ने सभी आपत्तियों का ऐनक लगा कर बारीकी से परीक्षण किया। राहु और केतु द्वारा अमृत चोरी कर फ़र्ज़ी देवता बनने की कोशिश करने के पुख्ता प्रमाण मिले जिसके आधार पर उनके नाम मतदाता सूची से काट दिये गये। केजरी, अखिलेश, ममता आदि के नाम भी उनके ख़राब पास्ट हिस्ट्री और देवत्व गुणों के नदारत होने के आधार पर काट दिए गए। परन्तु नरेंद्र देव और भगवती माया के नाम उनके पुरज़ोर देवत्व गुणों और पृथ्वी लोक में उनके दिव्य काम किये जाने के आधार पर बनाये रखे गये। इस प्रकार नारद जी ने अंतिम मतदाता सूची का प्रकाशन कर दिया तथा चुनावी तिथियों की उद्घोषणा कर दी। अब चुनावी माहौल पूरी तरह से गर्म हो चुका था। इन्द्र, सूर्य, अग्नि, नरेंद्र देव और भगवती माया समेत कुल 34 प्रत्याशी मैदान में उतर चुके थे। चुनावी प्रचार ज़ोर पकड़ रहा था और तरह-तरह के लोक लुभावन वादों से मतदाताओं को रिझाने की कोशिश चालू थी। इस काम में पृथ्वी से पहुँचे प्रत्याशी सबसे आगे थे। भगवती माया ने देव लोक में भी दबे कुचले देवताओं को 21 फीसद आऱक्षण देने की घोषणा कर दी और मुख्य चौराहों पर उनकी मूर्तियाँ लगवाने का वादा भी कर लिया। नरेंद्र देव ने सभी देवताओं को प्रतिदिन एक-एक घड़ा सोमरस देने और सभी को अलग-अलग नये मॉडल का पुष्पक जहाज देने और सभी को मनचाही अफ्सरायें देने के साथ अच्छे दिन लाने का भरोसा दिलाया। नरेन्द्र देव के चुनावी प्रचार से लोग अत्यधिक प्रभावित हो रहे थे। विशेष रूप से उनकी श्वेत दाढ़ी और आकर्षक व्यक्तित्व में उन्हें ब्रह्म देव की छवि नज़र आने लगी थी। हिमालय में तपस्या, केदारनाथ में शिव आराधना और राममंदिर के निर्माण के उनके अनूठे कार्यों से सभी गदगद थे। जैसी उम्मीद थी, नरेंद्र देव भारी बहुमत से विजयी घोषित किए गए और ब्रह्मा जी ने उन्हें देवराज के पद एवं गोपनीयता की शपथ शानदार समारोह में दिलायी। सारे देव समाज ने अपने नये देवराज का धूमधाम से ढोल नगाड़े बजा कर स्वागत किया। नये देवराज को यह वाद्य यंत्र बहुत पसंद आये और उन्होंने सभी देवताओं को समय-समय पर इसी तरह बाजा बजाते रहने के आदेश दिए। उधर देवर्षि नारद परम संतोष की दशा को प्राप्त हो चुके थे। इस प्रकार देव लोक में भी लोकतंत्र की बयार बहने लगी।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं।)

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