जब द्रोपदी ने सत्यभामा को बताया पति के दिल पर राज करने का रहस्य!

हेमंत शर्मा

इतिहास ने द्रौपदी के साथ न्याय नहीं किया। उसे अंहकारी, झगड़ालू और बदले की आग में धधकती स्त्री के तौर पर चित्रित किया गया। द्रौपदी का दूसरा नाम ही बदला, प्रतिशोध और प्रतिहिंसा माना गया। अपने अपमान की आग में तपती द्रौपदी। कौरवों के दर्प को कुचलने का प्रण लेती द्रौपदी। युद्ध के लिए पांडवों के पौरुष को ललकारती द्रौपदी। उस वक्त ही नारी मुक्ति आंदोलन की नींव बनती द्रौपदी। पाँच पतियों से असफल प्रेम करती द्रौपदी। महाभारत के विस्तृत कैनवास पर यह द्रौपदी के विभिन्न रूप हैं, जिसमें से हर रूप अपने आप में एक ग्रंथ की सामग्री है। दरअसल, यज्ञकुंड की आग से जन्मी द्रौपदी आजीवन उस आग से मुक्त नहीं हो पाई। वह हमेशा इसी प्रतिशोध की आग में जलती रही। उसी आग से दूसरों को जलाती रही। द्रौपदी महाभारत की धुरी है। पूरी महाभारत उसके इर्द-गिर्द घटित हुई। विडंबना है कि वह अपनों से भी लड़ी और दूसरों से भी। पर नितांत अकेले। महाराज द्रुपद की बेटी, प्रतापी पांडवों की पत्नी, धृष्टद्युम्न जैसे वीर की बहन और कृष्ण की सखी होने के बावजूद वह अपने संघर्ष में नितांत अकेली थी। जीवन की रणभूमि में अकेली खड़ी द्रौपदी ने अपने पतियों को हमेशा अधर्म के खिलाफ युद्ध के लिए प्रेरित किया। अपने केश खुले छोड़कर अगर वह अपनी ओर से एकतरफा युद्ध का ऐलान न करती तो शायद पांडव महाभारत की चुनौती को कभी स्वीकार न करते और इतिहास उनके भगोड़े चरित्र को ही जानता। पर यह रहस्य कृष्ण जानते थे। इसलिए युद्धभूमि में अर्जुन को गीता का ज्ञान देकर कृष्ण ने अपनी सखी कृष्णा की मदद की। कृष्ण ने अपनी जंघा पर ताल ठोककर भीम को भी उसकी प्रतिज्ञा याद दिलाई थी तब दुर्योधन मारा गया।
द्रौपदी का चरित्र अनोखा है। पूरी दुनिया के इतिहास में उस जैसी दूसरी कोई स्त्री नहीं हुई। लेकिन इतिहास ने उसके साथ न्याय नहीं किया। दरअसल, भारत की पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था उसके साथ तालमेल नहीं बिठा सकी। द्रौपदी को महाभारत के लिए जिम्मेदार माना गया। हालाँकि इसके लिए वह अकेली जिम्मेदार नहीं थी। मेरा मानना है कि द्रौपदी न भी रहती तो भी महाभारत का युद्ध होता, क्योंकि यह विवाद संपत्ति के बँटवारे का था। नहीं तो यह फार्मूला क्यों बनता कि कौरव पॉंच गॉंव दे दें तो मामला सुलट जायगा। द्रौपदी केवल कारण बनी। पाँच पतियों के कारण भारतीय परंपरा में द्रौपदी को आदर्श नारी का दर्जा कभी नहीं मिल सका। द्रौपदी का नाम उपहास से जुड़ गया। महाकाव्य युग के बाद लोगों ने अपनी बेटियों का नाम द्रौपदी रखना छोड़ दिया। समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया के अलावा किसी ने द्रौपदी को उसका सम्मान नहीं दिया। पाँच हजार साल के इतिहास में डॉ. लोहिया ही एक ऐसे आदमी हैं, जो द्रौपदी को सीता से ऊपर रखने को तैयार हैं। द्रौपदी का अनंत संताप उसकी ताकत थी। संघर्षों में वह हमेशा अकेली रही। पाँच पतियों की पत्नी होकर भी अकेली। प्रतापी राजा द्रुपद की बेटी, धृष्टधुम्न की बहन, फिर भी अकेली। अनाथ जैसी। कुशल रणनीतिकार कृष्ण की सखी, पर अनाथवत्। उसकी दैन्यता और असहायता का असली जख्म यही है। गौरतलब है कि द्रौपदी को दुःख देने वाले और कष्ट पहुँचाने वाले लोग उसके अपने ही थे। महाभारत के कई प्रसंग ऐसे हैं जब दोनों तरफ से उसे दुःख और अपमान की यातना मिलती है। दुःशासन का भरी सभा में उसके बाल पकड़कर घसीटना, उसे निर्वस्त्र करने की कोशिश करना, जयद्रथ और कीचक द्वारा उसका अपहरण करना। उसके जीवन के ये सारे ऐसे त्रासद प्रसंग हैं, जो उसे अनाथवत् बनाते हैं। शायद इसीलिए धृष्टद्युम्न और कृष्ण जब वनवास में द्रौपदी से मिलने गए तो वह गुस्से से फट पड़ी, कहा, ‘मेरा कोई नहीं है। मेरा न कोई पुत्र है, न पति, न भाई है और न बाप। मधुसूदन आप भी नहीं। यदि होते तो हमारा यह अपमान कभी न सहन किया होता।’ द्रौपदी की यही अनाथवतता उसके बगावती चरित्र के मूल में थी।
द्रौपदी और सत्यभामा के बीच एक संवाद महाभारत के वनपर्व में अध्याय 233 में मिलता है। इस संवाद की शुरुआत सत्यभामा के एक प्रश्न से होती है। कृष्ण की प्रिय पटरानी सत्यभामा द्रौपदी से एकांत में प्रश्न करती है-‘शुभे! द्रुपदकुमारि! किस बर्ताव से तुम वीर पाण्डवों के हृदय पर अधिकार रखती हो? वे पाँचों किस प्रकार तुम्हारे वश में रहते हुए कुपित नही होते? प्रियदर्शने! क्या कारण है कि पाण्डव सदा तुम्हारे अधीन रहते हैं और सब के सब तुम्हारे मुंह की ओर देखते रहते हैं? इसका यथार्थ रहस्य मुझे बताओ। ‘पांचाल कुमारी! आज मुझे भी कोई ऐसा व्रत, तप, स्नान, मन्त्र, औषध, विद्या-शक्ति, मूल-शक्ति जप, होम या दवा बताओ, जो यश और सौभाग्य की वृद्धि करने वाला हो तथा जिससे श्याम सुन्दर सदा मेरे अधीन रहें’। सत्यभामा का यह सवाल शाश्वत था।’ जबाब में द्रौपदी ने सत्यभामा से जो कहा, वह पांचाली के महान चरित्र की जीवंतता है। द्रौपदी के इस उत्तर में कुछ ऐसे पहलू हैं जिनमें द्रौपदी के पांडवों के साथ प्रेम, सामंजस्य और तालमेल का रहस्य समाया है। द्रौपदी सत्यभामा से कहती हैं कि कभी भी पति को वश में करने की कोशिश मैंने नहीं की। कुछ स्त्रियां पति को वश में करने के लिए तंत्र-मंत्र, औषधि आदि का उपयोग करती हैं, जो मैंने कभी नहीं किया। ऐसा करने पर यदि पति को ये बात मालूम हो जाती है तो वैवाहिक रिश्ता बिगड़ सकता है। समझदार स्त्री अपने परिवार के सभी रिश्तों की बारीकियाँ समझती है, क्योंकि एक भी रिश्ता चूक गए तो वह रिश्ता अपमानित हो सकता है। हर एक रिश्ते की जानकारी रखना और उनका सम्मान परिवार की एका के मूल में है। द्रौपदी कहती हैं कि मैं अपने पांडव परिवार के एक-एक रिश्ते से परिचित हूं। सबसे पहले मैंने इसका अध्ययन किया। गलत आचरण वाली स्त्रियों से मित्रता या मेल-जोल होने पर जीवन में परेशानियां बढ़ जाती हैं। इसीलिए मैं ऐसी स्त्रियों की संगत नहीं करती हूं। किसी भी काम के लिए आलस्य नहीं करना चाहिए। जो भी काम हो, उसे बिना समय गंवाए पूरा कर लेना चाहिए। स्त्री को कभी भी अकारण क्रोध नहीं करना चाहिए, हमेशा क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए। पराए लोगों से व्यर्थ बात करना भी अच्छा नहीं होता है। द्रौपदी ने सत्यभामा से कहा कि वह कभी भी परिवार में किसी सदस्य की बुराई भी नहीं करती है। द्रौपदी ने कहती कि वह अपनी सास कुंती द्वारा बताए गए सभी नियमों का पालन करती है। रोज घर आए गरीबों को दान देना, पूजा करना, श्राद्ध करना, त्योहारों पर विशेष पकवान बनाकर पांडवों को प्रसन्न रखती हूं। द्रौपदी ने कहा कि वह माता की कुंती की सेवा में लगी रहती है। माता की सेवा से पांडव प्रसन्न रहते हैं। द्रौपदी ने बताया कि वह पांडवों की आमदनी और व्यय की पूरी जानकारी हमेशा रखती है। यही वह रहस्य था, जिससे पांचों पांडव द्रौपदी से हमेशा प्रसन्न रहते थे।
द्रौपदी के तर्क, बुद्धिमत्ता, ज्ञान और पांडित्य के आगे महाभारत के सभी पात्र लाचार नजर आते हैं। जब भी वह सवाल करती है तो पूरी सभा निरुत्तर होती है। चाहे खुद को जुए में हारने का सवाल हो या फिर नारी के अपमान पर द्रौपदी के तीखे प्रश्न हों या फिर शांति पर्व में पितामह की नीति पर दी जाने वाली सीख पर द्रौपदी का भाषण हो। हर बार भीष्म को शर्म से गड़ना पड़ा। युधिष्ठिर को नजरें नीचे झुकानी पड़ीं। हस्तिनापुर की राजसभा के चापलूस दरबारियों को द्रौपदी हतप्रभ करती है। भीष्म, द्रोण, कृपा और कर्ण सरीखों की बोलती बंद करती है। सत्ता के शीर्ष पर हो रहे बेईमान फैसलों पर द्रौपदी जब उँगली उठाती है तो धर्मराज लाचार नजर आते हैं। कमजोर और अबला स्त्री के प्रति होते अन्याय पर तमाशबीन रहने वाले नीति निर्माताओं का यह तटस्थ और नपुंसक रवैया केवल इस युग के सत्तातंत्र की गवाही नही है। पाँच हजार साल पहले भी राजसभाएँ ऐसे ही चलती थीं। तब भी दुर्योधन से मिलने वाली वेतन की पट्टी से भीष्म, कर्ण, द्रोण, कृपाचार्य जैसे लोगों का मुँह बँधा रहता था। बेशक महाभारतकार और इतिहास ने धर्मराज का खिताब युधिष्ठिर को दिया हो, लेकिन कमजोर, निकम्मे, लाचार और यथास्थितिवादी युधिष्ठिर के आगे धर्म का जितना सटीक आचरण द्रौपदी ने किया, उसकी मिसाल पूरे महाभारत में नहीं मिलती। जिस युधिष्ठिर को धर्मराज कहा गया, उसने कई बार झूठ का सहारा लिया। चाहे वह धोखे से द्रोण का वध हो या फिर द्रौपदी को निर्वस्त्र किए जाने का प्रसंग। अश्वत्थामा को माफी देने का सवाल हो या पांडवों की अंतिम यात्रा में द्रौपदी पर युधिष्ठिर की घृणास्पद टिप्पणी। हर कहीं द्रौपदी धर्मराज से कहीं ज्यादा मर्यादा में दिखती है। युधिष्ठिर के जीवन की एक घटना ने तो उन्हें झूठा और षड्यंत्रकारी करार दिया। जब उन्होंने यह जानते हुए कि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा जीवित है और अश्वत्थामा नाम का हाथी ही मरा है। फिर भी झूठ बोला कि पता नहीं हाथी मरा है या मनुष्य, पर अश्वत्थामा मारा गया। इस एक सूचना पर द्रोण ने हथियार फेंक दिए और वे धृष्टद्युम्न के हाथों मारे गए। यह था धर्मराज का झूठ, धोखा और षड्यंत्र। द्रौपदी पर आप किसी छोटे से अधर्माचरण का भी आरोप नहीं लगा सकते। हाँ, यह सवाल जरूर उठता है कि अपने स्वयंवर में कर्ण को मछली की आँख पर निशाना लगाने से रोककर द्रौपदी ने ठीक किया या गलत? कर्ण को स्वयंवर में मौका न दिया जाना उसके साथ अन्याय था। ऐसा कुछ विश्लेषकों का मानना है। पर स्वयंवर तो द्रौपदी रचा रही थी। विवाह द्रौपदी का होना था। वर उसे चुनना था। तो वह अपनी शर्त पूरा करने का मौका किसे दे या किसे न दे, यह उसका अधिकार था, जिसका इस्तेमाल द्रौपदी ने किया।
द्रौपदी की महानता का एक और प्रसंग। चीरहरण के दौरान द्रोणाचार्य चुप थे। जिन सात महारथियों ने निहत्थे अभिमन्यु को घेरकर मारा था, द्रोणाचार्य उसमें भी शामिल थे। बावजूद इसके ब्राह्मण और गुरु होने के नाते द्रौपदी ने उन्हें माफ किया। द्रौपदी ने द्रोणाचार्य का हमेशा सम्मान किया। उन्हें उचित आदर दिया। गुरुपुत्र होने के कारण ही अश्वत्थामा का वध नहीं होने दिया। जिस अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पाँच पुत्रों की सोते में धोखे से हत्या कर दी थी, उस अश्वत्थामा को भी द्रौपदी ने क्षमादान दिया। यह था द्रौपदी का नैतिक शिखर। यह थी उसके चरित्र की विलक्षणता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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