अरुणांचल, उत्तराखंड की सीख रोक रही पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन?

राज खन्ना

पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार से सीधे टकराव के बावजूद मोदी सरकार के लिए वहां राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला लेना आसान नहीं होगा। अपने पहले कार्यकाल में अरुणांचल और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के मोदी सरकार के फैसले अदालत से रद्द हो गए थे। तय है कि बंगाल में भी अगर राष्ट्रपति शासन लगता है तो वह न्यायिक पुनरीक्षण का विषय बनेगा। ऐसी किसी स्थिति से मोदी सरकार बचना चाहेगी, जिसमे उसकी भद्द पिटे।
11 मार्च 1994 में एस. आर. बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ निर्णय दिया था कि राष्ट्रपति शासन केवल ऐसी स्थिति में लागू किया जाना चाहिए, जब और कोई इलाज न बचे। मर्ज लाइलाज हो जाये और राज्य का शासन संविधान के अनुसार चलना असंभव हो जाये। यह भी कहा गया था कि राष्ट्रपति शासन लागू होने की दशा में भी संसद के दोनो सदनों के अनुमोदन तक विधानसभा विघटित नही की जा सकती। राष्ट्रपति शासन के निर्णय को न्यायिक पुनरीक्षण के दायरे में मानते हुए अदालत ने कहा था कि राष्ट्रपति शासन की उदघोषणा रद्द किए जाने के साथ न्यायालय भंग विधानसभा को पुनर्जीवित और बर्खास्त सरकार को बहाल कर सकता है।
अरुणांचल और उत्तराखंड के मामलों में कोर्ट ने ऐसे ही फैसले किये थे। 26 जनवरी 2016 को मोदी सरकार ने अरुणांचल में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की थी। 11 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल विधानसभा के स्पीकर की शक्तियां छीन नही सकते। 13 जुलाई 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक मानते हुए नबाम तुकी की अगुवाई वाली तत्कालीन सरकार की बहाली का आदेश दे दिया था। मार्च 2016 में नौ कांग्रेसी विधायकों के बागी हो जाने के बाद स्पीकर ने उत्तराखंड की तत्कालीन हरीश रावत सरकार को 28 मार्च तक बहुमत साबित करने का मौका दिया था। इसी बीच राज्यपाल की सिफारिश पर वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। हाईकोर्ट ने इस फैसले को अमान्य कर दिया। केंद्र को इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से भी कोई राहत नही मिली और हरीश रावत सरकार बहाल हो गई थी। हालांकि पश्चिमी बंगाल का मौजूदा प्रकरण अरुणांचल और उत्तराखंड के मामलों से अलग है। इन दोनों राज्यों में तत्कालीन सरकारों के अल्पमत में आने का विवाद था। जबकि बंगाल की ममता बनर्जी सरकार पर संविधान के अनुसार सरकार न चलाने का आरोप है। संविधान के अनुच्छेद 355 के अनुसार केंद्र का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि वह वाह्य आक्रमण तथा आंतरिक अव्यवस्था से अपने राज्यों की सुरक्षा करे और यह सुनिश्चित करे कि हर राज्य सरकार संविधान के अनुसार चलाई जाए। केंद्र अनुच्छेद 256, 257 व 353 के अधीन राज्य को कुछ निर्देश भी जारी कर सकता है। फिर भी स्थिति न बदले तो अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लागू करने के पूर्व राज्यपाल की रिपोर्ट पर राष्ट्रपति का सहमत होना जरूरी है कि राज्य का शासन संविधान के अनुरूप नहीं चलाया जा रहा और राज्य का संवैधानिक तंत्र विफ़ल हो गया है। प्रश्न यह है कि राष्ट्रपति कब मान सकता है कि ऐसी स्थिति सचमुच आ गई है? इस प्रश्न का उत्तर संविधान के अनुच्छेद 365 में दिया गया है।
अनुच्छेद 365 में कहा गया है कि अगर राज्य सरकार केंद्र के संवैधानिक निर्देशों का पालन नही करती तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। साफ है कि अनुच्छेद 256, 257 व 353 के अधीन केंद्र सरकार के निर्देशों की राज्य सरकार द्वारा अवज्ञा राष्ट्रपति शासन को आमंत्रण दे सकती है। बेशक ममता बनर्जी सरकार केंद्र की मोदी सरकार से टकराव की मुद्रा में है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर पथराव के बाद दोनों सरकारों के रिश्ते और तल्ख हुए हैं। भाजपा राज्य में अपने सौ से अधिक कार्यकर्ताओं की हत्या का वहां के सत्तादल तृणमूल पर आरोप लगाती रही है। दोनो दलों में रोज ही वहां टकराव और हिंसक वारदातें हो रही हैं। राज्यपाल से भी मुख्यमंत्री के रिश्ते बेहद खराब हैं। दोनो ही पक्ष अपनी नाराजगी सार्वजनिक करने का कोई मौका नही छोड़ रहे हैं। ममता बनर्जी के निर्देश पर पश्चिम बंगाल के मुख्यसचिव और पुलिस महानिदेशक अपनी दिल्ली में तलबी के केंद्र के आदेश को मानने से इनकार कर चुके हैं। टकराव चरम पर है। लेकिन क्या वहां के मौजूदा हालात बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की कसौटी पर खरे उतरते हैं, जिसमे निर्णीत किया गया कि राष्ट्रपति शासन केवल तब जब कोई इलाज न बचे। मर्ज लाइलाज हो जाये और राज्य का शासन संविधान के अनुसार चलना असम्भव हो जाये। बंगाल को लेकर कोई बड़ा फैसला लेने के पहले राजनीतिक नफे-नुकसान के साथ ही उस फैसले के अदालत में टिकने की भी मोदी सरकार को फिक्र है।

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